कथा संग्रह : गहरी जड़ें 

एक अल्प-परिचित संसार का अनावरण

                                                                             अजय नावरिया

भारत में कई संस्कृतियाँ, हमेशा से दृश्य पर उपस्थित रहीं और कालांतर में उनका विलय भी समाज में होता रहा; अनेक विदेशी संस्कृतियाँ आईं और घुल-मिल कर एक-से हो गईं- एक मुहावरे में ही सही; उनका एक रूप बन गया. हालांकि, आज भी उनके अपने तीज-त्यौहार, रीति, रस्मो-रिवाज़, मान्यताएं, बंदिशें हैं परन्तु इस सांस्कृतिक बहुलता के बावजूद, उन सभी संस्कृतियों में 'हिन्दूपन' पैठ गया है. जाति की सत्ता, हिन्दूपन की पहचान है.

अनवर सुहैल, लम्बे समय से साहित्य क्षेत्र में सक्रिय हैं. उनका उपन्यास 'पहचान' छप चुका है. देश की सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में उनकी कहानियां छपती रही हैं. हंस जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में चार कहानियों का छपना, उनकी कथा-योग्यता का प्रमाण ही कहा जा सकता है.

ऐसा नही है कि अनवर सुहैल, पहली बार मुस्लिम परिवेश की कहानियां लिख रहे हैं, हिंदी कथा-साहित्य में शानी, राही मासूम राजा, बदिउज्जमा, असगर वजाहत, अब्दुल बिस्मिल्लाह, हसन जमाल, हबीब कैफ़ी तक अलग-अलग कद के रचनाकार रह चुके हैं और आज भी लिख रहे हैं. इनमे असगर वजाहत ने कथा-शिल्प में अनूठे प्रयोग तो किये ही हैं, इस परिवेश से बाहर भी खूब लिखा है.

अनवर सुहैल, हालांकि वैसे मकबूल न हुए, जैसे अन्य रचनाकार हैं, लेकिन उनकी कहानियों में उन सबसे अलग; कहना चाहिए कि अनूठापन यह है कि इन्होने अपनी इन छोटी-छोटी कहानियों में मुस्लिम समाज में जाति की पैठ को पकड़ा है.

अल्पसंख्यक होने की पीड़ा, दंश और अपमान का अनुभव, हिंदी कथा-साहित्य में पहले भी आता रहा है. गरीब मुसलमान चाहे वे अशराफ़ हों या पसमांदा; का चित्रण भी, उनके रीति-रिवाजों, जीवनचर्या और असुरक्षा बोध के साथ होता रहा है. ऐसा नही है कि अनवर सुहैल ने ऐसी कहानियां नही लिखी हैं...लिखी हैं और खूब लिखी हैं.

इस संग्रह में भी 'ग्यारह सितम्बर के बाद' 'गहरी जड़ें' आदि सभी कहानियां इस प्रवृत्ति को चित्रित करती हैं परन्तु जब हम उनकी कहानियां -'कुंजड-कसाई' 'फत्ते-भाई' 'पीरु हजाम उर्फ़ हज़रत जी' पढ़ते हैं, तब एक मुस्लिम परिवेश की इस अल्प-परिचित दुनिया का दरवाज़ा खुलता है. यहाँ पता चलता है कि हिन्दुओं की जाति-व्यवस्था, जैसे ज्यों-की-त्यों उठकर पहुँच गई है.

'कुंजड-कसाई' कहानी के मुहम्मद लतीफ़ कुरैशी, जो एक बैंक मैनेजर हैं, उसी तरह 'निचले पायदान' पर हैं, जिस तरह कोई हिन्दू समाज का तथाकथित निचली जाति का व्यक्ति माना जाता है. जिस 'कुरैशी' उपनाम पर उन्हें अपने बचपन में फख्र होता था, वही परेशानी का सबब बन जाता है. कथाकार ने इस मनोभाव को बखूबी पकड़ा है---'एम. लतीफ़ साहब को अच्छी तरह पता था कि मुहम्मद लतीफ़ कुरैशी के बदन को दफनाया तो जा सकता है परन्तु उनके नाम के साथ लगे 'कुरैशी' को वह कतई नही दफना सकते हैं...'

इसमें सैयद, शेख, पठानों की अकड़ और भेद-भाव को भी उभरा गया है. विडम्बना देखिये कि जो मुस्लिम समाज हिन्दुओं की बुतपरस्ती को सख्त नापसंद करता है, वही उनकी जाति-व्यवस्था को अपने दिल में जगह दिए बैठा है. दोहरे मापदंडों को भी छिलती हैं अनवर सुहैल की कहानियां...

एक और कहानी है---'फत्ते भाई' फत्ते भाई, साइकिल मिस्त्री, धार्मिक कामों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाले, ताजिया निकालने के अगुआ परन्तु लोग उन्हें उनकी जात याद दिला ही देते हैं. वे जात के साईं थे..यानी फकीर. हिन्दू समाज में इससे मिलती-जुलती जाति जोगी है. उनकी पत्नी हमीदा 'नाइ' जाति की है, जिसका उपहास करते हुए उसे 'छत्तीसा' कहा जाता है. इनता व्यंग्य, उपहास, विद्रूप.

मुहम्मद लतीफ़ कुरैशी की जबानी कहें तो---'वे तो बस इतना जानते थे कि 'एक ही सफ में खड़े महमूदो-अयाज़' वाला दुनिया का एकमात्र मज़हब है इस्लाम. एक नई सामाजिक व्यवस्था है इस्लाम. जहां उंच-नीच, गोरा-काला, स्त्री-पुरुष, जात-पात का कोई झमेला नही है..."

परन्तु सच यह है कि भारतीय परिवेश का कोई धर्म इससे बचा नही है.

अनवर सुहैल, धर्म के भीतरी सच्चाइयों को गहराई से जानते हैं. उन्हें इंसानियत और इंसान-दोस्ती की फ़िक्र है. उन्हें इस देश की खुशहाली और अमन की चिंता है. 'गहरी जड़ें' कहानी के असगर और ज़फर तथा उनके पिटा के माध्यम से वे इसे रेखांकित करते हैं.

अनवर सुहैल जानते हैं और न केवल जानते हैं बल्कि उनका विल्श्वास है कि इंसान जब तक भीड़ की शक्ल में न हों, तब तक अच्छा और अम्न-पसंद होता है; परन्तु --"भीड़ के हाथ में जब हुकूमत आ जाति है, तब क़ानून गूंगा-बहरा हो जाता है." वह ये भी जानते हैं.

मिडिया की भूमिका और बुद्धिजीवियों की गाल-बजाई पर भी वे तंज़ करने से नही चूकते.

साथ ही, यह भी, कहना चाहिए कि उनकी नज़र पर्याप्त पैनी है. धर्म और बाज़ार का रिश्ता, वे परत-दर-परत खोलते चलते हैं. कहानी 'नीला हाथी' बेहद संवेदनशील कहानी है. कल्लू एक ऐसा बच्चा है जिसे मूर्तिकला का गुण नैसर्गिक रूप से मिला है. परन्तु वह मुसलमान है और हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनाने के कारण वह अपने पिता से मार खाता है. समाज उनके परिवार का सामाजिक बहिस्कार कर देता है. वह एक हिन्दू बंगाली लड़की से खुदा को हाज़िर-नाजिर मानकर विवाह कर लेता है क्योंकि कोई उसके साथ नही आता. वही कल्लू बड़ा होकर एक 'फ़कीर' के रूप में अपने को प्रस्तुत करता है और धार्मिक लोगों की भावनाओं को 'कैश' करता है. कहानी का नैरेटर, उस मज़ार के बाहर की दुकानदारी और एक चाय की गुमटी की व्यवसायिकता का बहुत ही व्यंग्यात्मक ढंग से चित्रण करता है. "मैंने देखा कि वहां 'व्यस्को के लिए' शीर्षक लिए कई रंग-बिरंगी पत्रिकाएं प्रदर्शित थीं. एक तरफ बाबा रामदेव की किताबें और हनुमान-चालीसा, गीता आरी अन्य धार्मिक किताबें थीं."

यही हमारे समाज की सच्चाई है. यहाँ पाखण्ड का बोलबाला है. पारदर्शी और ईमानदार जेवण जीने की अघोषित पाबंदी है. पूरी ज़िन्दगी गुज़र जानी है, दूसरों की नज़रों में 'अच्छे-भले और इज्ज़तदार' बने रहने में, और हासिल होता है एक रिक्तता-बोध, बहुत कुछ चूक जाने का अफ़सोस.

अनवर सुहैल कहानी में बहुत बनावट और आडम्बर में नही पड़ते. वे किसी कुशल किस्सागो की तरह अपने मजमून को दिलचस्प अंदाज़ में पेश करते हैं. यह रोचकता, पाठक को बांधे रहती है. साथ ही, भाषा में प्रादेशिक लहजे और शब्दों की छौंक एक लोक-गंध उत्पन्न करती है.

हाँ, नीला हाथी कहानी का अप्रत्याशित अंत कुछ अखरता है.

मेरे गुजारिश है कि वे इसी अल्प-परिचितदुनिया के दरवाज़े पूरे खोलें ताकि वहां ही बदली हुई फिजा की हवा पहुंचे, वहां भी सुगबुगाहटें हों, तब्दीलियाँ हों और लोकतंत्र का सुंदर सपना, भीड़ में बदलने से बच सके.

शायद उनका लिखना भी तभी सार्थक होगा...

(ajay navaria : 12 jan 2014)


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